रायज़ादा श्री जगन्नाथ बाली जी - जिन्होंने कृषि क्षेत्र में विज्ञान और भारतीय परंपरा के बख़ूबी मिश्रण से अद्भुत कारनामे कर दिखाए
असंख्य मनुष्यों का यहाँ जन्म लेना, अपनी-अपनी जीवन लीला निभाना, और जीवन काल की समाप्ति पर फिर वापस पंचतत्वों में विलीन हो जाना- यह सम्पूर्ण परिक्रिया मानो एक निरंतर चलती धारा जैसी है। इसी प्रवाह में कभी-कभार ऐसे दुर्लभ इंसान प्रकट हो जाते हैं जो कि अपने युग से बहुत आगे के विचार उत्पन्न करते हैं और साथ-साथ असाधारण कर्मयोगी भी साबित होते हैं- और जो यहाँ से जाने से पहले उन विचारों और कर्मों का परिचय समाज को करा जाते हैं। अगर हमें ऐसे दुर्लभ रत्नों को क़रीब से देखने का सौभाग्य मिला हो, तो हमारा यह फ़र्ज़ बन जाता है कि उनकी सोच और उपलब्धियां भावी पीढ़ियों को प्रेरित करने के लिए दर्ज कर दी जाएँ।
ऐसे उल्लेखनीय व्यक्तियों को अक्सर उनके जीवनकाल के दौरान कुछ मान्यता और ख्याति मिलती तो है, लेकिन कई मामलों में उनकी दूरदर्शिता की व्यापक और अधिक सराहना केवल बाद में होती है- जब समाज और अधिक विकसित हो कर उनके परिप्रेक्ष्य को बेहतर समझने के लायक बन जाता है।
ऐसे एक व्यक्ति थे रायज़ादा श्री जगन्नाथ बाली। उल्लेखनीय है की जो "रायज़ादा" शब्द एक पुराने प्रतिष्ठित परिवार के वंशज होने का प्रतीक था, उसे वह अपने नाम के आगे शामिल करना पसंद नहीं करते थे। वैसे भी, उनकी सफलता की बुनियाद पारिवारिक विरासत में मिली धन-संपत्ति पर नहीं टिकी थी। बल्कि इसके ठीक विपरीत, बाली जी ने केवल अपनी मेहनत के बलबूते उन ढेर सारी वित्तीय और अन्य चुनौतीयों को शिकस्त दी थी, जो भारत का आक्समिक विभाजन इनके परिवार के ऊपर छोड़ गया था, और जिन से जूझ कर दुबारा उभर आना कोई आसान कार्य नहीं था ।
पृष्ठभूमि
भारत की राजधानी दिल्ली से उत्तरपूर्व की दिशा में तक़रीबन 150 मील दूर स्थित बाहरी हिमालय पहाड़ों के आधार क्षेत्र को तराई के नाम से जाना जाता है। सन 1950 में इंसानों का तराई में रह पाना बेहद कठिन था। न सिर्फ यह इलाक़ा मलेरिया से ग्रस्त और जंगली जानवरों से पीड़ित था, आये दिन पालतू जानवरों को बाघ उठा ले जाते थे। उसके अतिरिक्त अक्सर सुनने मैं यह भी आता था कि कोई बाघ मानव के खून को चखने का आदी हो गया है, जिससे कि और भी अधिक एहतियात की आवश्यकता उत्पन्न हो जाती थी। ज़हरीले सांप और घातक अजगर भी खतरे के स्रोत थे, और ज़्यादातर ज़मीन ही एक दलदल सी थी। संक्षेप में कहा जा सकता है कि यह वह जगह थी जहां कोई भी कदम नहीं रखना चाहता था!
इसी तराई क्षेत्र के मध्य, काशीपुर और कुंडेश्वरी के छोटे-छोटे क़स्बों के क़रीब, श्री जगन्नाथ बाली जी ने बहुत सस्ते दामों पर ही सही मगर अपनी तमाम जमा पूंजी लगा कर 1,100 एकड़ ज़मीं खरीदी थी। उस समय, "बाऊजी", जैसा कि परिवारजन उन्हें संबोधित करते थे, पचास वर्ष से ज़्यादा के हो चले थे। यह उम्र इतना बड़ा वित्तीय जोखिम उठा कर एक नया पेशा शुरू करने लिए असामान्य थी, लेकिन इसके पीछे एक कारण था।
उस ज़मीन के सौदे से सिर्फ तीन साल पहले, भारत के विभाजन की वजह से कई लाखों हिंदुओं और सिखों पर नरसंहार या विस्थापना का क़हर टूटा था। नवनिर्मित इस्लामी राष्ट्र पाकिस्तान में प्रशासन का अधिकाँश हिस्सा अपने धार्मिक अल्पसंख्यकों की दिक्कतों से या तो बेपरवाह था, या कभी-कभी उनके उत्पीड़न में पूरे तौर पर सहभागी था। विभाजन के दौरान सब से ज़्यादा दिल दहला देने वाले दंगे अविभाजित पंजाब के उत्तरी क्षेत्र ने देखे थे। इनमें रावलपिंडी ज़िले की तहसील गुजर ख़ान शामिल थी, जहां पुलिस बल ने एक भयानक क़त्लेआम से ठीक एक दिन पहले अपने सभी हिंदू और सिख कर्मियों को अपने शस्त्रों से व्यवस्थित रूप से वंचित कर दिया था।
उन गड़बड़ियों के केंद्र के ठीक बीचोबीच में स्थित तुर्कवाल गांव था, जहां रायज़ादा जगन्नाथ बाली जी के परिवारजन रहते थे। उथल-पुथल के ज्वार ने परिवार को अपनी पूर्वजों की धरती से उखाड़ दिया और वे भारतीय पक्ष की ओर बहते लाखों लोगों के बीच एक कण बन गए। परिवार ने फिर भी अपने आप को कई और परिचित परिवारों के अपेक्षाकृत अधिक भाग्यशाली माना क्योंकि उन्होंने किसी सदस्य को दंगों की तबाही में हमेशा के लिए खोया नहीं ।
विभाजन से पहले, बाऊजी "हिंद ईरान बैंक लिमिटेड" के प्रबंध निदेशक के रूप में कार्यरत थे। यह बैंक, जो ज़िला रावलपिंडी के ही सरदार साहिब सिंह नामक एक सज्जन द्वारा स्थापित किया गया था, दुर्भाग्यवश लंबे समय तक नहीं चला। मालिकों की असामयिक मौतों और विभाजन से उत्पन्न जटिलताओं ने उस संगठन को जल्द समाप्त कर दिया। वैसे तो विभाजन के साथ बाऊजी और बैंक का ताल्लुक़ भी छूट गया था, मगर फिर भी एक पूर्व वरिष्ठ कर्मचारी होने के नाते बाऊजी ने अपनी नैतिक जिम्मेदारी निभाई और बैंक के ख़ात्मे से उत्पन्न मुकदमों में ग्राहकों और शेयरधारकों के हितों में अपनी सर्वोत्तम क्षमता के साथ योगदान दिया।
बैंक के कानूनी मामलों पर काफी समय और धन खर्च हुआ, मगर बाऊजी ने फिर भी अपने तराई उद्यम की सफलता के लिए आवश्यक सभी प्रयासों को रुकने नहीं दिया। उनके मार्गदर्शन में 42 परिवार, जिनमें से ज़्यादातर पाकिस्तान से विस्थापित थे, ने अपनी निडरता और कठोर श्रम से भूमि को कृषि योग्य भूमि बना दिया। जिस तराई इलाक़े को कभी उपजाऊ नहीं जाना जाता था, उसी इलाक़े की मान्यता भारत की सबसे बेहतरीन कृषि भूमि के रूप में स्थापित हो गई। समृद्ध हरियाली और बारह-मासी धाराओं को भेजने वाले पहाड़ियों की निकटता का अर्थ था की ज़मीन के थोड़ा ही नीचे पानी का अच्छा दबाव के साथ मौजूद होना। इस को प्रकृति की उदारता मान कर बाउजी ने सन 1960 तक 8 "आर्टेज़िअन" कुएं स्थापित किए थे। कड़ी मेहनत, विभिन्न फसल प्रकारों की आज़माइश और बाऊजी का अथक उत्साह के फलस्वरूप अच्छी फ़सलें आने लगीं ।
विडंबना यह है कि एक तरफ जैसे ही खेतों में ज़बरदस्त फसल आने लगी, दूसरी तरफ सरकार द्वारा कानून लागू कर दिये गए जिनके तहत हर व्यक्ति पर कृषि योग्य धरती की धारित मात्रा पर सीमाएं स्थापित कर दी गयीं। ये "एग्रीकल्चरल लैंड सीलिंग" कानून ने परिवार की भूमि धारणता को पहले 1100 एकड़ से लगभग 400 एकड़ तक और फिर लगभग 225 एकड़ तक घटा दिया। हालिया सालों में झेले गए झटकों के मुक़ाबले यह तो एक छोटी चीज़ थी, ऐसा मान कर परिवार ने इस बाधा को भी क़बूल कर लिया।
परिवर्तन की शुरुआत
वर्ष था 1962। उल्लेखनीय है कि उस समय "ऑर्गेनिक फार्मिंग" (जो के अब घरेलू शब्द बन गया है), के बारे में बहुत काम लोगों ने सुना था। श्रीमान अर्न्स्ट फ्रेडरिक शूमाकर की मशहूर किताब " स्माल इज़ ब्यूटीफुल " जो विकेन्द्रीकृत , पर्यावरण-सहायक, स्थानीय स्रोतों पर आधारित, और मानवता-केंद्रित प्रौद्योगिकि के अनेक फायदों की बात करती है, उसे छपने में भी तब 11 साल बाक़ी थे। अमेरिकी सरकार ने 1972 में कीटनाशक के रूप में डीडीटी के उपयोग पर जो प्रतिबंध लगाया था, यह बात उस से भी पूरे दस साल पहले की है। यहाँ तक के दिल्ली में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) , भारत की अग्रणी इंजीनियरिंग संस्थानों में से एक, ने भी बहुत बाद ही में (यानि के 1983 में) जा कर अपने "साइंस एंड हुमेनिज़्म" (विज्ञान और मानवतावाद) पाठ्यक्रम की शुरुआत की, जिसने प्रौद्योगिकी विकल्पों के परिणामस्वरूप अलग-अलग क़िस्म के सामाजिक प्रभाव पर प्रकाश डाला।
इन सब से बहुत पहले, 1962 में, जगन्नाथ बाली जी ने अपने खेतों में अत्यंत महत्वपूर्ण परिवर्तन करने शुरू कर दिए। उन्होंने न सिर्फ "मैकेनाइज्ड" (यानी आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल करने वाली) खेती की बजाय पारंपरिक खेती को अपनाया, उन्होने एक अलग समग्र दृष्टिकोण को नींव बना कर एक नए सिरे से कृषि व्यवसाय की शुरुआत की। और वह दृष्टिकोण यह था कि किसी भी उद्यम को सफल नहीं समझना चाहिए जब तक कि यह वास्तव में पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित और विवेकपूर्ण रूप से इस्तेमाल नहीं करता है, और खेतों के मालिकों के साथ साथ और अनेक व्यक्तियों को भी भौतिक लाभ पहुंचाए।
मनुष्य, भूमि, वनस्पतियों, जीवों, समाज और प्रकृति के अन्य पहलुओं का एक दूसरे पे क्या असर होता है, उसे बाऊजी ने बेहद क़रीब से परखा था - इस विषय में कोई औपचारिक शिक्षा नहीं होने के बावजूद उसकी इतनी सटीक समझ एक कमाल का सामर्थ्य था। वित्तीय परिप्रेक्ष्य से, जब खेतीबाड़ी का व्यवसाय इतना संपन्न हो चला था, तब इस पैमाने पर फेर बदल करने की बिलकुल भी कोई मजबूरी नहीं थी। फिर भी, लगभग एक दर्जन वर्षों में दूसरी बार, उन्होने साहसपूर्वक एक बड़ा जोखिम उठा कर अपने सभी मैकेनाइज्ड फ़ार्म उपकरणों को (जिन में उनके सभी 13 ट्रैक्टर शामिल थे), त्याग दिया- और इसके बदले और अधिक मवेशियों की ख़रीदा और अधिक श्रमिकों को काम पर रख लिया।
परिवर्तन के परिणामस्वरूप आस पास के इलाक़े को रोजगार का एक महत्वपूर्ण स्रोत प्राप्त हो गया। कुछ ही दिनों में उनके खेतों की वजह से और 60 किसान, 15 डेयरी कामगार, अन्य विविध नौकरियों के लिए लगभग 40 से 50 मजदूर, और तक़रीबन 200 अन्य दैनिक मजदूरी वाले श्रमिक जुड़ गए । नतीजतन, आसपास के इलाकों में बड़ी संख्या में परिवारों को सम्पन्नता प्राप्त होने लगी।
उत्तरी भारत के गाँवों में जो पहनावा आम होता है, बाली जी की पोशाक उसी के मुताबिक़ होती थी। आज़ाद भारत में राष्ट्रवाद के पुनरुत्थान के बावजूद, एक मानसिकता हावी रही है जिसके तहत स्वदेशी चीज़ों और विचारधाराओं को घटिया माना गया है। उस मानसिकता की परवाह किये बग़ैर बाऊजी अपनी पारंपरिक पगड़ी शान से पहनते थे। जल्दबाजी से निष्कर्ष निकालने वाले कोई शहरी इंसान अगर बाऊजी के इल्म और क़ाबिलियत के विशाल खजाने को कम आंकने की भूल कर जाते, तो महज़ थोड़ी बातचीत से ही उनकी यह ग़लतफ़हमी दूर हो जाती थी और बाऊजी के ज्ञान की व्यापकता का साफ़ पता चल जाता। लोगों को आश्चर्य होता कि किसी एक व्यक्ति - विशेषकर भारत के ग्रामीण इलाके के किसान- को अलग-अलग विषयों की इतनी ज़्यादा मालूमात कैसे हो सकती हैं, जिन में साहित्य, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, कानून, व्यापार, शरीर विज्ञान, और कृषि के विभिन्न विषय शामिल थे। भारतीय परम्पराओं की जानकारी और निपुणता के साथ साथ उन की अंग्रेजी लिखने और बोलने पर भी ख़ासी महारत थी, जिसे "इंडिया टुडे" नामक समाचारपत्रिका ने एक लेख में "क्रिस्प एंड आर्टिकुलेट" क़रार दिया था। उच्च समुद्रों पर बड़े जहाज़ों के नियंत्रण से ले कर दूरदराज के देशों के सांस्कृतिक रुझानों जैसे विषय, जिन का दूर-दूर तक उन के पेशे से कोई संबंध नहीं था, उन पर वह तफ़सील से बातें कर सकते थे। यह उनके लगातार ज्ञान हासिल करने की तीव्र इच्छा का ही नतीजा था। उन्होंने विभिन्न वैज्ञानिक पत्रिकाओं को भी सब्सक्राइब किया और उन्हें उत्सुकता से पढ़ा करते थे। इन सब बातों के मद्देनज़र यह शायद स्वाभाविक ही था कि वैकल्पिक मूल्यों पर निर्मित मानव उद्यम और पर्यावरण के पहलुओं को उचित तरीके से शामिल करने वाले दृष्टिकोण किसी ऐसे महाज्ञानी की उपज ही हो सकती थी।
स्वदेशी को अनपयुक्त मानने वाली भारतीय शहरी मानसिकता ने खेती के पारंपरिक तरीकों को भी नहीं बख़्शा, और यूँ समझिये कि उन्हें अक्षमता और असंगत परिणाम का पर्याय घोषित कर दिया गया। मैकेनाइज्ड खेती की श्रेष्ठता के बारे में आश्वस्त लोगों की नज़र में, बाऊजी के लाये जा रहे बदलाव अनुचित थे। कई और लोग यह समझने में असमर्थ थे कि इतनी कड़ी मेहनत के बाद स्थापित एक अच्छी तरह से मुनाफ़ा दे रही व्यवस्था को बदलने की आवश्यकता ही क्या है। इस तरह के नकरात्मक विचारों का प्रभाव बाऊजी ने ख़ुद पर नहीं पड़ने दिया। अपने यक़ीन से वह डगमगाए नहीं और अपने लक्ष्य को ले कर आश्वस्त रहे।
परिवर्तन के फल- सौर कुकर, मीथेन कृत उजाला, ऑर्गेनिक उर्वरक.. इत्यादि
गोबर गैस संयंत्र
आर्टेज़ीयन कुओं के इस्तेमाल, ट्रैक्टरों का त्याग, और अधिक श्रमिकों को शामिल करने के इलावा, अन्य परिवर्तनों को भी अंजाम दिया गया। 1962 में डॉ. जगदीश चंद्र गुप्ता जैसे विशेषज्ञ सलाहकारों से परामर्श के साथ बाली फार्म्स पर पहले " गोबर गैस संयंत्र" पर निर्माण शुरू किया गया था - एक बायोगैस संयंत्र जिस से की खेत में उपलब्ध गोबर को अन्य उपयोगी उत्पादों में परिवर्तित किया जा सकता था । गोबर को यदि खुली हवा में क्षय होने के लिए रख दिया जाता है (एरोबिक डीकॉम्पोज़िशन), तो वह काफी हद तक कार्बन डाइऑक्साइड और अमोनिया में विघटित हो जाता है- और एक अवशेष छोड़ देता है जो उर्वरक के तौर पर बहुत ज़्यादा मूल्यवान नहीं होता है और ईंधन के रूप में भी खराब गुणवत्ता अनुसार, बहुत धुएं के साथ जलता है। इसके विपरीत, एक गोबर गैस प्लांट "एनारोबिक" (यानि के खुले ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में) क्षय को सुनिश्चित करने के लिए एक तंत्र प्रदान करता है - जिससे अंत उत्पाद मुख्य रूप से मीथेन (एक अधिक उच्च श्रेणी का ईंधन) और एक नाइट्रोजन युक्त घोल जो एक उत्कृष्ट उर्वरक के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
गोबर गैस संयंत्र का एक मुख्य हिस्सा एक धातु का ड्रम था जो गोबर को मुक्त ऑक्सीजन की आपूर्ति से वंचित रखता था। इस के नीचे मीथेन और अन्य गैस का उत्पादन होता था और ड्रम के वजन से गैस की निकासी के लिए सकारात्मक दबाव पैदा होता था, जिसे वाल्व के ज़रिये विनियमित किया जाता था। गोबर गैस प्लांट में ऑपरेटिंग तापमान विशेषकर महत्वपूर्ण होता है- परन्तु स्वाभाविक है कि बहुत हद्द तक यह नियंत्रित नहीं किया जा सकता था। पहली बार इस तकनीक का इस्तेमाल हो रहा था और यात्रा की शुरुआत में अप्रत्याशित बाधाओं का आना स्वाभाविक था ।
पहले गोबर गैस संयंत्र के ड्रम का दस फुट व्यास नीचे कक्षों द्वारा निर्मित गैसों पर नियंत्रण रखने में अपर्याप्त साबित हुआ और ड्रम अक्सर झुकाव का शिकार हो जाता था । अपघटन कक्ष में गोबर का जम जाना एक और भी अधिक चुनौतीपूर्ण समस्या हो जाती थी जिसको साफ़ करना कठिन और नागवार कार्य था। मगर निराश होना तो दूर, बाऊजी ने बल्कि इस से कहीं ज़्यादा बड़ा तीस फुट व्यास का ड्रम प्राप्त करने के बाद एक और बड़े संयंत्र का निर्माण किया, जो कि 1970 के दशक तक पूरा हो गया। पहले संयंत्र की दिक़्क़तों के मद्देनज़र यह एक और बड़ा वित्तीय जोखिम उठाने वाली बात थी - मगर एक बार फिर जोखिम सफल साबित हुआ - नया संयंत्र बेहतर पूर्वानुमान के साथ काम करने में सफल रहा, और चार फीट की इसकी ड्रम ऊंचाई से गैस का दबाव बेहतर सुनिश्चित भी किया जा सका, जिसका उपयोग इसे और दूर तक वितरित करने के लिए किया गया।
1970 के दशक में, जब भारतीय बाज़ारों में उर्वरकों की भारी कमी हो गयी, तो रायज़ादा जगन्नाथ बाली के खेत अपने सभी मवेशियों और गोबर गैस संयंत्रों द्वारा उपलब्ध कराई गई आत्मनिर्भरता के कारण अप्रभावित हो कर चलते रहे। ट्रैक्टर पर निर्भरता का न होना तो भारी बारिश के एक विशेष सत्र में जीवन दायक साबित हुआ। जहाँ बारिश की वजह से पड़ोस के एक बड़े मेकेनाइज्ड खेत में परिचालन पर रोक लग गयी थी, बाली फ़ार्म्स अपने निर्धारित शेड्यूल पर काम करता रहा। बाली जी ने ग़ौर किया था कि ट्रेक्टरों और अन्य मैकेनाइज्ड फार्मिंग उपकरण की मरम्मत और रखरखाव में काफी समय और श्रम लग जाता था, ऐसी रुकावटों से छुटकारा पाना भी उन के लिए एक महत्वपूर्ण प्रोत्साहन था और उनकी यह समझ और अधिक सटीक साबित नहीं हो सकती थी।
रचनात्मक समाधान
गोबर गैस संयंत्र से पाइपों को फ़ार्महाउस रसोईघर तक ले जाया गया, जिस से मीथेन के रूप में खाना पकाने के ईंधन की आपूर्ति की जा सके। ग्रामीण भारत में लोकप्रिय खाना पकाने वाले अन्य ईंधन की तुलना में मीथेन कहीं अधिक साफ़ जलता है (यह सी.एन.जी से बहुत मिलता जुलता है जो भारत के कुछ हिस्सों में अब व्यापक रूप से वाहनों में इस्तेमाल होता है, और बहुत कम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए जाना जाता है)।
बायोगैस की प्रचुर मात्रा में आपूर्ति और भी अधिक रचनात्मकता को प्रेरित करती रही - सिर्फ कुछ श्रमिकों की सहायता से, बाऊजी के बड़े बेटे श्री सुखदेव बाली जी एक पारंपरिक पेट्रोल इंजन को दोहरे-ईंधन वाले इंजन का रूप देने में सक्षम रहे - इस इंजन में केवल शुरूआत के लिए पेट्रोल की आवश्यकता होती थी, और फिर यह पूरी तरह से बायोगैस पर चलने में सक्षम था। इस तकनीक से अंततः एक पुरानी निसान ट्रक के परिवर्तित इंजन का इस्तेमाल खेती से जुड़ी अन्य गतिविधियों के लिए बल स्रोत (यानि कि पॉवर सोर्स) के रूप में किया गया। इस उपयोग में गैस की अंतर्निहित नमी द्वारा आयी समस्याओं से भी सफलतापूर्वक निपट लिया गया।
वैकल्पिक पर्यावरण-अनुकूल प्रौद्योगिकियों की हर नई सफलता के साथ और अधिक प्रेरणा मिली, और स्व-पर्याप्त होने के लाभ बढ़ते चले गए। परंपरागत प्रकाश बल्ब के बजाय, विशेष लालटेन स्थापित किए गए जो बिजली के बजाय छोटे पाइपों के माध्यम से आपूर्ति की गई बायोगैस जलाते थे । बेशक, बाजार में ऐसी कोई मीथेन कृत रोशनी का यंत्र उपलब्ध नहीं थी, लेकिन फ़ार्म के उत्साहित कार्यकर्ताओं ने आम तौर पर मिलने वाले "पेट्रोमॅक्स" लैंप को सफलतापूर्वक परिवर्तित कर दिया, जिस से कि वह दबाव वाले केरोसिन के बजाय मिथेन का उपयोग करता था।
1950 के दशक के शुरूआती दिनों से ही बाऊजी ने सौर गर्मी का उपयोग कर के खाना पकाने वाले उपकरणों के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। उन्होंने इज़राइल में इस्तेमाल होने वाले सौर कुकरों के बारे में सुना था, और इजरायली व्यापार आयुक्त और बम्बई में मानद कौंसुल श्रीमान एफ़ डब्लू पोलक को इस सिलसिले में चिट्ठी लिखी। पोलक जी ने उदारता का परिचय देते हुए ऐसे कुकर के ब्रोशर और अन्य विवरण प्रदान कर दिए, जिस के फलस्वरूप बाऊजी अपने सहायकों की मदद से भी कुछ सौर कुकर का निर्माण किया। जल्द ही विभिन्न प्रकार के सौर कुकर खेत पर प्रकट होने लगे। 1970 के दशक आने तक, दिन के दौरान सूर्य से एकत्रित ऊर्जा स्नान के लिए गर्म पानी की आपूर्ति के लिए भी इस्तेमाल की जाने लगी।
इन सब उपलब्धियों में शायद सबसे आश्चर्यजनक यह थी कि एक "फ्रिज" को भी संशोधित कर दिया गया जिस से की वह गोबर गैस संयंत्र के ईंधन का उपयोग कर के चल सके। मैं कई बार यह सोचता था कि पूरे पृथ्वी ग्रह पर गोबर गैस का उपयोग कर के चलने वाला यह शायद एकमात्र रेफ्रिजरेटर था!
इन सभी उपलब्धियों में एक बेहद प्रशंसनीय बात यह थी के उन को डिज़ाइन उन लोगों ने किया था जिन के पास इंजीनियरिंग में कोई औपचारिक डिग्री नहीं थी, और काम को अंजाम ज़्यादातर अनपढ़ कार्यकर्ताओं और खेत श्रमिकों की मदद से दिया गया था।
परंपरा के सैनिक
बाऊजी का ताल्लुक़ पंजाब के जिस ग्रामीण भाग से था, वह अपने लोगों की उदारता के लिए मशहूर था - इस विशेषता का एक छोटा उल्लेख 1850 के दशक में इतिहासकार श्री गणेश दास वाधरा द्वारा लिखित रिसाला-ए-साहेबनुमा में भी मिल जाता है। प्रांत के उस हिस्से में पैदा हुए और पले-बड़े रायज़ादा जगन्नाथ बाली की दरियादिली भी उस ही प्रतिष्ठा के मुताबिक़ थी। ट्यूबवेलों के बजाय आर्टेज़ीयन कुओं के तरफ़ उनकी रूचि भी शायद उसी उदार सोच की एक झलक थी। ज़मीन के अंदर जल के सकारात्मक दबाव के सिद्धांत पर कार्य करने वाले ये कुएं भूमि पर पानी का यूँ वितरण करते हैं, जैसे कि यह आधिक्य के फलस्वरूप धरती की दी गयी एक भेंट हो। इसके विपरीत, ट्यूबवेल में पानी पंप द्वारा निकाला जाता है, जैसे कि कोई चीज़ पृथ्वी से जबरन ली जा रही है, उसे वंचित कर के। बाऊजी अक्सर पड़ोसी खेतों को सिंचाई के लिए पानी यह कह कर निःशुल्क दे देते थे, के जो तोहफ़ा धरती ने उन्हें मुफ़्त में दिया उस के लिए वह कभी किसी से पैसे नहीं ले सकते थे। सौर कूकरों का उत्साह भी उनकी उदारता में अच्छी तरह से मिश्रित था, सौर गर्मी पर पकाये भोजन के साथ आगंतुकों की सेवा करना उनके लिए एक खुशी देने वाली आदत बन गयी। एक खेत पर रहने का लुत्फ़ मेहमानों के लिए पेश विस्तृत व्यंजन के रूप में उभर आता था। इन सब के मद्देनज़र यह विडम्बना की बात थी के 1973 में अंग्रेजी अख़बार "द गार्जियन" में उन पर एक लेख ने आश्चर्यजनक रूप से कहा कि "बाली द्वारा पेश किया गया भव्य करी लंच" पंजाबी लोगों की मशहूर कंजूसी के विपरीत था!
बाऊजी द्वारा किये गए मैकेनाइज्ड से पारम्परिक कृषि प्रणालिओं के परिवर्तन के फलस्वरूप पास के पंतनगर विश्वविद्यालय को कृषि अनुसन्धान के लिए एक उत्कृष्ट प्रयोगशाला मिल गयी। विश्वविद्यालय के विशेषज्ञों ने विभिन्न कृषि तरीकों की तुलना करने में सफलता प्राप्त की और बाली फ़ार्म्स पर कराई गई खेती पद्धति द्वारा 30% अधिक "क्रॉपिंग डेंसिटी" (फ़सल घनत्व) दर्ज किया, और भारत में अभूतपूर्व फ़सल पैदावार (जैसे 2 टन प्रति एकड़ गेहूं, 40 टन प्रति एकड़ गन्ना) दर्ज की, जिस को किसी ने पारम्परिक पद्धति से कभी संभव ही नहीं समझा था। बात थोड़ी और दूर तक फैली और बाली जी कृषि से संबंधित मामलों पर स्थानीय और केंद्रीय प्रशासित इदारों में एक सलाहकार बना दिये गए। उन्हें पंतनगर विश्वविद्यालय के प्रबंधक बोर्ड का सदस्य भी बनाया गया और अनेक कृषि सम्मेलनों को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया।
उन दशकों में, दूध की उच्च पैदावार को आयातित मवेशियों और नस्ल मिश्रण के साथ ही संभव माना जाता था, जिस विचार से बाऊजी पूरी तरह से असहमत थे। उन्होंने पशुओं के नस्लों को अपने प्राकृतिक जलवायु की स्थिति के अनुसार सबसे उपयुक्त बताया, और गाय की मिश्रित नस्लों को विशेष रूप से वह लंबे समय तक न चल पाने वाला समाधान समझते थे - उन्हें पूरा भरोसा था कि भारतीय नस्लों से जो कम पैदावार देखी जा रही थी , वह केवल अपर्याप्त देखभाल और कुपोषण का परिणाम था। इस सोच के फलस्वरूप खेत में अन्य सभी प्रयोगों के बीच, भारतीय गाय प्रजातियों के चयनात्मक प्रजनन का एक दृढ़ प्रयास भी चल उठा। कई जंगली और भटके हुए मवेशी पाले गए, और स्टॉक को सुधारने के लिए एक सतत प्रयास किया गया था। जल्द ही, थारपारकर गाय नस्ल से प्राप्त एक सर्वश्रेष्ठ सेट के साथ, राष्ट्रीय औसत से 15 गुना ज़्यादा दूध की पैदावार हासिल करने में सफलता प्राप्त हुई । भारत में दूध की पैदावार को अधिकतम करने के लिए अक्सर गायों को तनावपूर्ण परिस्थितियों और अनावश्यक हार्मोन इंजेक्शन से जूझना पड़ता है, लेकिन बाली जी के खेतों पर उनके साथ बहुत बेहतरीन बर्ताव होता था। मवेशियों की देखभाल ऐसी थी कि एक पत्रिका के लेख के अनुसार कई बंजर गायों ने भी बाली फ़ार्म्स की देखभाल पाने के पश्चात दूध पैदा करना शुरू कर दिया था! एक प्रतिबद्ध हिंदू होने के नाते, बाऊजी की दिनचर्या सबसे पहले सुबह के 4 बजे अपने अस्तबलों में जा कर गायों के "दर्शन " से शुरू होती थी। बाऊजी ने फ़ार्म की गौशाला के लिए एक नियम रखा था- जो गायों की देखभाल करते थे उन्हें दूध पर पहला अधिकार दिया गया था, और उनकी ख़ुद की बारी बाद में आती थी। खेत से जुड़े सभी परिवारों की आवश्यकता पूरी होने के बाद भी आम तौर पर रोजाना 300 लीटर अतिरिक्त दूध बेचने के लिए बच जाता था।
विदेश से आये स्वयंसेवक
किसी भी कृषि तकनीक को बहुत उत्पादक के साथ साथ एक स्थायी प्रणाली साबित करना किसी भी युग के लिए एक अत्यंत उल्लेखनीय उपलब्धि है- और खास तौर पर भारत जैसे ज़्यादा आबादी वाले देश के लिए तो बेहद ही मूल्यवान। फिर भी, पत्रिकाएं और समाचार पत्रों में छिटपुट लेखों को छोड़कर, बाऊजी द्वारा अंजाम दिए गए क़रिश्मों की खबर से ज़्यादातर देश वंचित ही रह गया। शहरी भारत की निगाहें वैज्ञानिक प्रगति के लिए पश्चिम की ओर टिकी रहीं, और दुर्भाग्यवश, अपने स्वयं के एक ग्रामीण इलाके में हुए इन कारनामों की तरफ उन का पर्याप्त ध्यान ही नहीं गया। विडंबना यह हुई कि शिक्षा संस्थानों में बात ज़्यादा तेज़ी से फैलते-फैलते भारत की सीमाओं से कहीं परे चली गयी। तत्पश्चात अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसी जगहों से छात्र बाली फ़ार्म्स पर स्वयंसेवक बन कर आने लगे। उन में से अधिकांश पर्यावरण संरक्षण के भावपूर्ण प्रतिपादक थे, और यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया बर्कली जैसे श्रेष्ठ संस्थानों से जुड़े हुए व्यक्ति थे। इन में से कई अपने काशीपुर प्रवास के दौरान उस व्यक्ति के जीवनभर के लिए अनुयायी बन गए, जिन के दार्शनिकता और कार्य ने उन्हें वहां खींचा था। इन स्वयंसेवकों ने बड़ी उदारता के साथ श्रमदान दिया और कुछ लोगों ने यह भावना अपने जीवन के अगले चरण में परोपकारी सेवाओं के रूप में जीवित रखी।
राजनीतिक दृष्टिकोण
रायज़ादा जे एन बाली ने जिन तकनीकों और विधियों का पालन किया उसे भले ही भारत में "गांधियन टेक्नोलॉजी" यानि कि गांधीवादी प्रौद्योगिकी का लेबल दे दिया गया है, मगर वह हरगिज़ "गांधीवादी" नहीं थे। बल्कि अन्य कई लोगों की तरह, जिन्होंने देश के विभाजन की एक भारी व्यक्तिगत क़ीमत चुकाई थी, वह गांधी जी की राजनीति या कांग्रेस पार्टी के ज़्यादा अनुयायी भी नहीं थे- और उनकी इस राय के पीछे अनेक कारण थे। नेहरूवादी मानसिकता ने स्वदेशी परम्पराओं को अक्सर अक्षमता और आलस का पर्याय क़रार दिया था, जबकि बाऊजी इस दृष्टिकोण से न सिर्फ पूरी तरह से असहमत थे, उन्होंने स्वदेशी माध्यम से प्राप्त समृद्ध फसलों के साथ अपनी बात अच्छी तरह साबित भी कर दी थी।
नेहरू जी की सोच में स्वदेशी संस्कृति की प्रेरणा कम थी, और विशेष रूप से कुछ हिन्दू परम्पराओं से जुड़ी चीज़ों के प्रति उनके अनेक लेखों और उच्चारित शब्दों में अवहेलना साफ़ नज़र आती थी। समाज विज्ञान विशेषज्ञों के अनुसार अपनी सांस्कृतिक पहचान पर ढाये गए भीषण तिरस्कार वाली परिस्थितियों के मध्य पले-बड़े लोगों में अक्सर ऐसा प्रभाव उत्पन्न हो जाता है के वह स्वयं की संस्कृति से एक प्रकार की घृणा करने लगते हैं, जिसे "सेल्ब्स्टहास" की संज्ञा दी गयी है - और नेहरू जी पर भी कुछ ऐसा प्रभाव प्रत्यक्ष था। मगर विडंबना यह है कि जब उनकी सोवियत शैली की नीतियां गरीबी दूर करने में बुरी तरह से विफल रहीं तो अर्थव्यवस्था की धीमी गति से हो रही उन्नति को "हिंदू दर की वृद्धि" क़रार दिया गया, यह कह के की हिन्दुओं का क़िस्मत पर अत्यधिक विश्वास और सुधार की अपर्याप्त इच्छा ही उसका कारण था। यह दृष्टिकोण रायज़ादा जे एन बाली की सोच से पूरी तरह से विपरीत था, जो कि आत्मविश्वास, अत्यंत उत्साह, अथक परिश्रम और स्वदेशी परंपरा के प्रति सम्मान से परिभाषित थी। "इस उम्र में भी उन का काम करने का अविश्वसनीय जुनून देखने योग्य है" एक समाचार लेख ने कुछ यूँ वर्णित किया था, जब बाऊजी अस्सी वर्ष के थे।
अपनी उदारता, जानकारी के खज़ाने और सफलता की वजह से रायज़ादा जगन्नाथ बाली ने समाज में एक इज़्ज़त का मुकाम हासिल किया। कई राजनेताओं का उनके साथ संपर्क में आना उस का एक स्वाभाविक नतीजा था। उनके और चौधरी चरण सिंह जी के बीच एक घनिष्ठ दोस्ती विकसित हुई- और कई चीजों पर दोनों के एक समान दृष्टिकोण ने इसे और मज़बूत किया। चरण सिंह पहले कांग्रेस पार्टी के सदस्य रहे थे, लेकिन नेहरू की आर्थिक नीतियों के कट्टर विरोध के बाद 1967 में उन्होंने एक अलग राजनीतिक समूह बना लिया था जो कि किसानों के हितों के साथ निकटता से जुड़ा था।
कई सालों तक चली दोनों के बीच की यह घनिष्ठ दोस्ती दिल्ली में अचानक एक शाम को चरण सिंह जी के सरकारी बंगले पर ख़त्म हो गयी। चालीस साल बाद, इस घटना के चश्मदीद गवाह रहे रायज़ादा जे एन बाली के पोते दीपक बाली को अब भी बख़ूबी याद है- "उन दोनों की कई पूर्व दोस्ताना मुलाक़ातों की तरह यह भी एक थी। मुलाक़ात के ख़त्म होने पर, चरण सिंह हमें बाहर छोड़ने आ रहे थे और उस दौरान, उन्होंने हिंदुओं के खिलाफ एक बहुत ही आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी थी - स्वयं एक हिन्दू होने के बावजूद। बाऊजी उस दिन के बाद उन से फिर कभी दोबारा नहीं मिले और न ही कभी उनका कोई फ़ोन कॉल स्वीकार किया। घटना के शीघ्र पश्चात चरण सिंह के उप-प्रधान मंत्री बनने के बावजूद बाऊजी अपने इस रुख पर डटे रहे। कुछ चीजें बाऊजी के लिए समझौते के परे थीं। जीवन के दौरान उन्होंने अपनी हिंदू संस्कृति के ऊपर बहुत तरह के हमले देखे थे जिन को वह देश के हितों के लिए भी हानिकारक मानते थे, और अब उन के लिए वह पूर्णतः अस्वीकार्य थे।
रायज़ादा जगन्नाथ बाली जी का निधन अप्रैल 1984 में हुआ। सिवाय अंतिम कुछ दिनों की एक संक्षिप्त बीमारी के जिसने आख़िरकार उन्हें बेहोश कर दिया था, उन्होंने अपने वयोवृद्ध अवस्था में भी उल्लेखनीय स्वास्थ्य बनाए रखा था। ऐसा लगता था कि आखिर तक बरक़रार उनकी ज़बरदस्त स्मरणशक्ति, चपलता, और उनकी तेज़ नज़र मानो पीछे छूट रहे समाज के लिए एक अंतिम प्रतीकात्मक संदेश था। और वह क्रमशः यह था के हमारी सभी अच्छी परम्पराओं को कभी न भुलाया जाए , परिश्रम के लिए उत्साह सदैव बना रहे, और हम भी भविष्य को ठीक उसी स्पष्टता से देखा करें जैसा उन्होंने संभव कर दिखाया था।